मैंने ही की बच्चे की हत्या कबूलनामे ने दिलाई सजा हाईकोर्ट ने मां की अपील खारिज की

बिलासपुर। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक चौंकाने वाले मामले में नवजात शिशु की हत्या की दोषी मां की सजा को बरकरार रखा है। चीफ जस्टिस रमेश सिन्हा और जस्टिस बीडी गुरु की खंडपीठ ने सत्र न्यायालय से मिली उम्रकैद की सजा के खिलाफ महिला की अपील खारिज कर दी। कोर्ट ने अपने फैसले में माना कि महिला ने गांव वालों की सामाजिक बैठक में बिना किसी दबाव या लालच के खुद ही यह कबूल किया था कि उसने बच्चे की हत्या की है।

लोकलाज के भय से की थी हत्या

यह मामला 22 अक्टूबर 2018 का है जब रायपुर जिले के एक व्यक्ति ने पुलिस को सूचना दी कि उसकी विधवा बहू ने अपने दो दिन के नर शिशु के माथे और गले में चोट पहुंचाकर उसकी हत्या कर दी है और शव फेंक दिया है। पुलिस ने जांच की तो पीएम रिपोर्ट में बच्चे के सिर और गर्दन पर चोट से मौत और हत्या की पुष्टि हुई। महिला ने लोकलाज के भय से अवैध संबंध से जन्मे अपने नवजात बच्चे को खार में फेंक दिया था। पुलिस ने जनवरी 2019 में मामला दर्ज कर महिला और एक सह अभियुक्त के खिलाफ चालान पेश किया। निचली अदालत ने सह आरोपी को बरी कर दिया लेकिन महिला को अपने ही बच्चे की हत्या के आरोप में धारा 302 में उम्रकैद 201 में 5 साल और 318 में 2 साल कैद की सजा सुनाई थी।

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इकबालिया बयान बना सजा का आधार

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हाईकोर्ट में आरोपी महिला के वकील ने तर्क दिया कि उसे झूठा फंसाया गया है। उनके ससुर जिन्होंने रिपोर्ट लिखवाई थी वे अपने बयान से पलट गए हैं। एफआईआर दर्ज होने में तीन महीने से ज्यादा की देरी हुई थी और कोई चश्मदीद गवाह नहीं है। इन आधारों पर दोषमुक्त करने की मांग की गई थी।

                          हालांकि हाईकोर्ट ने अपने आदेश में साफ कहा कि मेडिकल रिपोर्ट से यह साबित होता है कि बच्चे की मौत हत्या की वजह से हुई थी। कोर्ट ने पाया कि सामाजिक बैठक में महिला ने खुद स्वीकार किया था कि उसके अवैध संबंध से बच्चा पैदा हुआ था और जब सह अभियुक्त ने बच्चे को रखने से मना कर दिया तो उसने बच्चे की हत्या कर दी। डीएनए रिपोर्ट से भी यह पुष्टि हुई कि वह बच्चे की जैविक मां है। कोर्ट ने कहा कि महिला ने गांव वालों के सामने स्वेच्छा से और बिना किसी प्रलोभन के यह स्वीकारोक्ति की थी।

कोर्ट ने बरकरार रखी निचली अदालत की सजा

हाईकोर्ट ने अपने आदेश में यह भी कहा कि ऐसे न्यायेतर इकबालिया बयान को सजा का आधार बनाया जा सकता है। इसके अलावा महिला के कबूलनामे की पुष्टि मेडिकल साक्ष्य और अन्य गवाहों के बयानों से भी हुई है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि किसी प्रतिकूल गवाह के पूरे बयान को खारिज नहीं किया जाना चाहिए और ऐसा हिस्सा जो अभियोजन पक्ष के मामले के अनुरूप है उसे साक्ष्य में स्वीकार किया जा सकता है। इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए हाईकोर्ट ने सत्र न्यायालय के आदेश को सही ठहराते हुए महिला की अपील को खारिज कर दिया है।

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