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नगर निगम की नाकामी उजागर: आवारा कुत्तों पर काबू नहीं, अब निजी एजेंसियों को सौंपा जाएगा जिम्मा
रायपुर: प्रदेश में आवारा कुत्तों की बढ़ती संख्या पर रोक लगाने में नगर निगम और संबंधित सरकारी एजेंसियों की नाकामी एक बार फिर सामने आ गई है। करोड़ों रुपए खर्च करने के बावजूद नसबंदी और प्रबंधन के दावे जमीनी स्तर पर नज़र नहीं आ रहे। स्थिति यह है कि शहरों में कुत्तों के झुंड बढ़ते जा रहे हैं और लोगों का रोज़मर्रा का जीवन प्रभावित हो रहा है। सरकार ने अब इस काम को निजी एजेंसियों को देने का निर्णय लिया है। लेकिन इसी के साथ कई सवाल भी उठ खड़े हुए हैं।
सरकारी एजेंसियाँ क्यों फेल? निजी एजेंसियाँ कैसे सफल?
यह सवाल सिर्फ कुत्तों के प्रबंधन तक सीमित नहीं है। अस्पतालों से लेकर स्कूलों तक और बस सेवा से लेकर टेलीकॉम तक लगभग हर क्षेत्र में सरकारी व्यवस्थाएँ संघर्ष करती दिखती हैं, जबकि निजी सेक्टर बेहतर काम कर जाता है।
विशेषज्ञ इसके पीछे इन वजहों को मानते हैं:
- जवाबदेही का अभाव
- काम की धीमी रफ्तार और फाइलों में उलझी प्रक्रियाएँ
- तकनीकी अपडेट की कमी
- स्टाफ की कमी और प्रशिक्षित कर्मियों का अभाव
निगरानी तंत्र कमजोर
इसके उलट, निजी एजेंसियों पर सीधे तौर पर परिणाम देने का दबाव होता है। पैसों का भुगतान काम की गुणवत्ता और गति पर निर्भर होता है। इसलिए उनका प्रदर्शन अपेक्षाकृत बेहतर दिखता है।
करोड़ों खर्च हुए… नतीजे कहाँ हैं?
नगर निगम ने पिछले वर्षों में आवारा कुत्तों की नसबंदी, टीकाकरण और आश्रयों के निर्माण पर भारी खर्च किया। लेकिन न तो कुत्तों की संख्या नियंत्रित हुई, न ही नागरिकों की शिकायतें कम हुईं। अब जब सरकार फिर से निजी हाथों में यह जिम्मेदारी सौंप रही है, सवाल उठ रहे हैं कि अभी तक जो करोड़ों खर्च हुए उनका हिसाब कौन देगा?
क्या चल रहा था वर्षों से?
लोगों का आरोप है कि नसबंदी के नाम पर बनाई गई योजनाएँ कागजों पर ज्यादा और जमीन पर कम थीं। यदि योजनाएँ सही से लागू होतीं, तो आज यह स्थिति नहीं बनती।
प्रदेश की व्यवस्था पर बड़ा सवाल
आवारा कुत्तों का मामला बस एक उदाहरण है। इससे कहीं बड़ा सवाल है, क्या सरकारी एजेंसियाँ वाकई अपनी मूल जिम्मेदारियों को निभाने में सक्षम हैं? लोगों की पीड़ा साफ है, अगर कुत्तों का प्रबंधन भी नहीं कर पा रहे, तो फिर कर क्या रहे हैं? सरकार अब निजी एजेंसियों को नया ठेका देगी और करोड़ों का एक और चक्कर शुरू होगा। लेकिन जनता के दिल में एक ही सवाल गूंज रहा है, क्या कभी यह प्रदेश सही मायनों में जिम्मेदार हाथों में आएगा?
